Written By :Yogesh Sharma
Updated on : 11 May 2022
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संस्कृत शब्द से हुई थी “डॉलर” की व्युत्पत्ति
चेक रिपब्लिक में एक स्थल है “Jáchymov” जिसका जर्मन नाम है “Joachimsthal” । यह स्थल चेक रिपब्लिक के जर्मन भाषी बोहेमिया में जर्मनी के बोहेमिया प्रान्त की सीमा पर है और चेक रिपब्लिक का वह क्षेत्र जर्मन भाषी रहा है,यद्यपि हिटलर की पराजय होते ही वहाँ से जर्मनों को भगाकर चेक लोगों को स्तालिन ने बसा दिया ताकि वहाँ की यूरेनियम खदानों का दोहन कर सके । Joachimsthal का आधुनिक म्लेच्छों द्वारा अर्थ बताया जाता है ईसाई सन्त “Joachim's valley” जो गलत है । सब जानते हैं कि चेक और जर्मन आदि भी भारोपीय परिवार की भाषायें थीं । अतः “Joachim−sthal” का अर्थ हुआ “Joachim का स्थल” । १५१६ ई⋅ में बोहेमिया के राजतन्त्र में वहाँ चाँदी की खदाने थीं । वहाँ की चाँदी से सिक्के ढाले जाते थे जिनपर सन्त Joachim का चित्र रहता था,जिस कारण प्रत्यय “−er” लगाकर उन सिक्कों को “Joachimsthaler” कहा जाता था जिसका अर्थ हुआ “योआक़िम के स्थल वाला (सिक्का)” । संक्षेप में उन सिक्कों को “sthaler” कहते थे जिनका प्रचलन चाँदी की शुद्धि के कारण दूर−दूर तक हुआ । जर्मनी के पश्चिमी और उत्तरी निम्न प्रदेशों में “sthaler” के अपभ्रंश “thaler” को “daler” कहते थे जिनका विभिन्न भाषाओं में कुछ अन्तर रहता था । स्पेनी में dólar कहते थे जहाँ से अमरीकी महाद्वीपों में प्रचार हुआ । अमरीका में अंग्रेजों ने स्पेनी dólar को dollar बना दिया जिसे अमरीका पूरे विश्व पर थोप रहा है । स्पेन की मुद्रा “पेसो” हिन्दी “पैसा” से बनी । स्पेन का “पेसो” का अर्थ था एक निश्चित भार,जितने भार का वह सिक्का होता था । स्पेनी “पेसो” का प्रचलन तब आरम्भ हुआ जब पेरू,मेक्सिको आदि में स्पेनी लुटेरों को चाँदी की विशाल खदानें मिलीं । स्पेन को इतना चाँदी मिलने लगा कि अधिकांश विश्व व्यापार “पेसो” में ही होने लगा । उस युग में विश्व व्यापार का अधिकांश भारतीय सामग्रियों पर आधारित था । अतः पुर्तगाल ने भारत से “पैसा” सीखा और उसे “पेसो” कहा । १९११ ई⋅ तक पुर्तगाल और स्पेन की मुद्रा में अन्तर नहीं था । भारत का “पैसा” प्राचीन संस्कृत सिक्का “पण” का अंश था जिसे “पणांश” कहते थे । “पणांश” का अपभ्रंश हुआ “पैसा” । पणांश > पैन्स > पैसा,ब्रिटेन का पैसा “पेन्स” भी पण से ही बना । रोमनों में एक भार का नाम था पोण्डो जिससे ब्रिटेन में पाउण्ड मुद्रा बनी । पोण्डो भी पण्यदः का अपभ्रंश था,मूलतः पण से निःसृत । “पण” का सर्वाधिक प्रसिद्ध संस्करण था बुद्ध से मौर्य काल तक की मुद्रा “कार्षापण” । “पण” पहले चाँदी के होते थे । अशोक के भयानक युद्ध के कारण आर्थिक क्षति हुई तो मौर्यों ने चाँदी के सिक्कों में ताँबा मिलाना आरम्भ कर दिया । पूर्णतया ताँबे के सिक्के भी प्रचलन में थे । कालान्तर में चाँदी के सिक्के को चाँदी के पर्याय “रूपा” के कारण “रूपया” कहा जाने लगा और उसके अंश पणांश को “पैसा” । आज पेसो दर्जनों देशों की मुद्रा है ।
“पैसा” से भी छोटी मुद्रा थी “कौड़ी”,भारत से चीन आदि तक सर्वत्र । पूर्वी भारत में चाँदी के सिक्के पर टङ्कन के कारण “टाका” प्रचलित हुआ ।
भारतीय परम्परा है मुद्रा पर देवी−देवता का चित्र अथवा नाम अथवा प्रतीक डालना,न कि गाँधीजी अथवा जार्ज वाशिंगटन का चित्र देना । भारत का अन्धयुग जब आरम्भ हुआ तब राजाओं ने अपने चित्र डालने आरम्भ किये । किन्तु मुहम्मद गोरी ने भी पंजाब पर आधिपत्य करने के पश्चात वहाँ की परम्परा के अनुसार मुद्रा पर लक्ष्मी जी और ॐ का चित्र ही दिया,बाद में मुसलमानों की शक्ति बढ़ी तो हिन्दू प्रतीकों को हटाया । बोहेमिया में चाँदी के “स्थल” से डालर बना और भारत के पैसा से पेसो । म्लेच्छ प्रोफेसर्पों को भारत से सीखकर भारत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में लज्जा आती है । आज संसार में जितना स्वर्ण है उसका अधिकांश भारत की लूट से ही गया है । म्लेच्छ नहीं स्वीकारेंगे । आज भी सबसे अधिक लूट भारत की ही हो रही है — नकली विनिमय दर द्वारा । रोमन साम्राज्य के लेखकों ने अपनी पुस्तकों में शिकायत की कि भारत से आयात करने में रोमनों को हर वर्ष ६० करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च करनी पड़ती थी । उतना स्वर्ण एकत्र करने के लिए रोमनों को पूरे वर्ष यूरोप,अफ्रीका और पश्चिम एशिया में लूट−खसोट हेतु अनवरत युद्ध करने पड़ते थे जिस कारण सारे लोग अत्याचारी रोमनों के शत्रु थे । ६० करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का वर्तमान मूल्य लगभग ३ लाख करोड़ रूपये अथवा क्रयशक्ति के आधार पर वर्तमान १७० अरब डालर के तुल्य है और कृत्रिम विनिमय दर पर ४० अरब डालर । अभी भारत का सम्पूर्ण निर्यात दो सहस्र वर्ष पूर्व के रोम को भारतीय निर्यात का नौ गुना है । केवल रोम को निर्यात से प्रति व्यक्ति आय आज के भारत के सम्पूर्ण निर्यात की तुलना में सवा दो गुणी अधिक थी । विदेश व्यापार से कुल प्रति व्यक्ति आय आज से आठ−दस गुणी अधिक रही होगी । कितना समृद्ध था यह राष्ट्र! वह समृद्धि वैश्यों और शूद्रों के कारण थी जिनका भिखमँगे ब्राह्मण भीख माँगकर शोषण करते थे (आज के ईसाई लेखकों और उनके चाकरों के अनुसार) । दो सहस्र वर्ष पूर्व भारत का निर्यात जितना था उतने स्तर तक पुनः भारत बींसवी शती में ही पँहुचा है,वरना पिछली शतियों की लूट ने सोने की चिड़िया के पर कतर डाले थे ।
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